Thursday, December 21, 2017

कांचीपुरम मंदिर Kanchi Kailasanathar Temple Tamilnadu

कांचीपुरम मंदिर

कांचीपुरम, साड़ियों के अलावा एक और चीज़ के लिए पहचाना जाता है. वो है यहां पर मौजूद हजारों मंदिर, जिसकी वजह से इसे मंदिरों का शहर भी कहा जाता है.

कांचीपुरम – कैलाशनाथ का मंदिर.

भारत में सतवाहन राज वंश की शक्ति क्षीण होनेपर   दक्षिण में पल्लवों के रूप में एक नयी शक्ति का उदय हुआ. इनके साम्राज्य में पूरा आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु का उत्तरी भाग शामिल था. इन्होने कांचीपुरम को अपनी राजधानी बनायीं और ४ थी से ९ वीं सदी तक राज किया. परन्तु इस पूरी अवधि में उत्तर के चालुक्यों एवं दक्षिण के चोल तथा पंडय राजाओं से वे संघर्षरत रहे. पल्लवों के काल में वास्तुकला, साहित्य एवं संगीत के क्षेत्र में अप्रतिम प्रगति हुई. दक्षिण पूर्व एशिया  में भारतीय संस्कृति के उन्नयन में पल्लवों का योगदान महत्वपूर्ण रहा है. इन्हीं के काल में कांचीपुरम भी तमिल, तेलुगु एवं संस्कृत की शिक्षा का एक बड़ा केंद्र बना. प्रारंभिक पल्लव अपने आपको ब्रह्म क्षत्रिय कहलाना पसंद करते थे. अर्थात ब्राह्मण  जिन्होंने शस्त्र धारण किया.  लेकिन कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि संभवतः इनका सम्बन्ध इरान के पहल्वों से था जो कृष्णा नदी के मैदानी भाग में कभी आ बसे होंगे. ५००  वर्षों  के उनके राजकाल में वैसे तो कई प्रतापी शासक हुए परन्तु साम्राज्य को उंचाईयों में पहुँचाने का काम महेन्द्रवर्मन १ (५७१ – ६३० ईसवी) एवं नरसिम्हवर्मन  १ (६३० – ६६८ ईसवी) ने किया.
मंदिरों के स्थापत्य कला के दृष्टिकोण से पल्लवों का काल महत्वपूर्ण रहा है. उस काल के स्थापत्य के दो स्वरुप दिखते हैं.प्रारंभ के निर्माण चट्टानों को तराश कर बनाये गए मंदिर आदि हैं. इसका सर्वोत्तम उदाहरण महाबलीपुरम में दृष्टिगोचर होता है. जिनकी कालावधि ६१० – ६९० ईसवी के बीच आंकी गयी है. वहीँ संरचनात्मक मंदिरों का निर्माण सन ६९० के बाद दिखाई पड़ता है. इस काल के लगभग सभी मंदिरों में मुख्य प्रतिष्ठा भगवन शिव की रही है.
कांचीपुरम चेन्नई बंगलूरु मुख्य मार्ग पर चेन्नई से लगभग ७६ किलोमीटर की दूरी पर है. यह नगर भारत के प्राचीनतम  ७ नगरों में एक है.  ३ – २ री  सदी ईसा पूर्व भी इस नगर के अस्तित्व में होने के प्रमाण तत्कालीन बौद्ध साहित्य में मिलते हैं. यहाँ पर १००० मंदिरों के होने की बात कही गयी है. यहाँ के प्रमुख मंदिरों में प्राचीनतम “कैलाशनाथ” या तामिल में कहें तो कैलाशनाथर (“जी” के एवज में है “र”)  का मंदिर है. यह मंदिर शहर से लगभग २ किलोमीटर दूर पश्चिम दिशा में है और वहां जाने के लिए ऑटो या टेक्सी आसानी से मिल जाता है. इस मंदिर को नरसिम्हवर्मन II, जो राजसिम्हा के नाम से भी जाना जाता था, के द्वारा ८ वीं सदी के पूर्वार्ध में अपनी पत्नी को प्रसन्न करने के लिए बनवाया गया था. मंदिर की दीवार में उत्कीर्ण ग्रन्थ लिपि के लेख में नरसिंहवर्मन   द्वारा ग्रहण किये गए विभिन्न उपाधियों का उल्लेख है. इस मंदिर की बनावट महाबलीपुरम के समुद्र तट पर बने  मंदिर से मेल खाती है, क्योंकि उसे  भी  राजसिम्हा के  द्वारा ही बनवाया गया था.
???????????????????????????????वैसे तो यह मंदिर भगवान् शिव को अर्पित है परन्तु विष्णु सहित अन्य  देवी देवताओं की मूर्तियाँ भी मंदिर के गर्भ गृह के बाहर स्थापित हैं. गर्भ गृह का चक्कर लगाने के लिए एक संकीर्ण गलियारा है जिसका प्रवेश बिंदु जन्म और निकास मृत्यु का पर्याय माना जाता है. जितने अधिक बार आप प्रवेश कर बाहर निकलेंगे उतने ही आप मोक्ष के करीब पहुंचेंगे. यह मंदिर मूर्तियों का खजाना है  और सभी मूर्तियों की कलात्मकता बेजोड़ है. भगवान् शिव को ही ६४ विभिन्न भाव भंगिमाओं के साथ इसी एक मंदिर में देखा जा सकता है. इस मंदिर की एक विशेषता यह भी है कि मंदिर चारों ओर से ५८ छोटे छोटे मंदिरों  से घिरा है जिनमें विभिन्न उप देवी/देवताओं को स्थान दिया गया है.
मंदिर के अन्दर परिक्रमा पथIMG_2143
स्थापत्य के दृष्टिकोण से इस मंदिर की महत्ता अतुलनीय है और लोग इसका रसास्वादन करने के लिए ही यहाँ आते है. एक धार्मिक स्थल के रूप में स्थानीय लोगों के बीच भी यह अधिक लोकप्रिय नहीं है अतः मंदिर में दर्शकों की भीड़ नहीं रहती. हाँ शिवरात्रि के दिन यह मंदिर अवश्य ही  विभिन्न आयोजनों का केंद्र बन जाता है.
कहते हैं कि महाप्रतापी चोल राजा, राजा राजा चोल  ने इस मंदिर के दर्शन किये थे. इस मंदिर से ही प्रेरणा लेकर तंजाऊर में भव्य ब्रिह्देश्वर के मंदिर का निर्माण करवाया था.

तिरुपति बालाजी Tirupati Balaji Temple

तिरुपति बालाजी
आन्ध्र प्रदेश की तिरुमाला पहाडियों में बसा है तिरुमाला वेंकटेश्वारा मंदिर जिसे तिरुपति बालाजी के नाम से जाना जाता है, भगवान विष्णु को समर्पित है. यह मंदिर भारत में मौजूद सबसे अमीर मंदिरों में शुमार है. यहां पर प्रसाद के रूप में मिलने वाला लड्डू अपने स्वाद के लिए पूरे विश्व में प्रसिद्ध है.
यहां पर मन्नत पूरी हो जाने पर लोग अपने बालों का चढ़ावा चढ़ाते हैं, जिससे यहां लगभग लाखों डॉलरों की कमाई होती है.



जानें तिरुपति बालाजी मंदिर से जुड़े रहस्यों और मान्यताओं के बारे में...

हर साल लाखों लोग तिरुमाला की पहाडिय़ों पर उनके दर्शन करने आते हैं. तिरुपति के इतने प्रचल‍ित होने के पीछे कई कथाएं और मान्यताएं हैं. इस मंदिर से बहुत सारी मान्यताएं जुड़ी हैं. चलिए एक नजर ड़ालते हैं उन मान्यताओं पर- भारत के सबसे अमीर मंदिरों में से एक है तिरुपति बालाजी मंदिर. यहां बड़े-बड़े उद्योगपति, फिल्मी सितारे और राजनेता दर्शन के लिए पहुंचते हैं. तिरुपति महाराज जी के दरबार में अमीर और गरीब दोनों जाते हैं. हर साल लाखों लोग तिरुमाला की पहाडिय़ों पर उनके दर्शन करने आते हैं. तिरुपति के इतने प्रचल‍ित होने के पीछे कई कथाएं और मान्यताएं हैं. इस मंदिर से बहुत सारी मान्यताएं जुड़ी हैं. चलिए एक नजर ड़ालते हैं उन मान्यताओं पर- 


  • माना जाता है कि तिरुपति बालाजी अपनी पत्नी पद्मावती के साथ तिरुमला में रहते हैं.

  • तिरुपति बालाजी मंदिर के मुख्य दरवाजे के दाईं ओर एक छड़ी है. कहा जाता है कि इसी छड़ी से बालाजी की बाल रूप में पिटाई हुई थी, जिसके चलते उनकी ठोड़ी पर चोट आई थी.

  • मान्यता है कि बालरूप में एक बार बालाजी को ठोड़ी से रक्त आया था. इसके बाद से ही बालाजी की प्रतीमा की ठोड़ी पर चंदन लगाने का चलन शुरू हुआ. 

  • कहते हैं कि बालाजी के सिर रेशमी बाल हैं और उनके रेशमी बाल कभी उलझते नहीं.

  • कहते हैं कि तिरुपति बालाजी मंदिर से करीब करीब 23 किलोमीटर दूर एक से लाए गए फूल भगवान को चढ़ाए जाते हैं. इतना ही नहीं वहीं से भगवान को चढ़ाई जाने वाली दूसरी वस्तुएं भी आती हैं. लोग कहते हैं कि उस गाव में किसी बाहरी शख्स का जाना मना है, क्योंकि वहां कि औरतें ब्लाउज नहीं पहनती.

  • हैरानी की बात तो यह है कि वास्तव में बालाजी महाराज मंदिर में दाएं कोने में खड़े हैं, लेकिन उन्हें देख कर ऐसा लगता है मानों वे गर्भगृह के मध्य भाग में खड़े हों.

  • तिरुपति बालाजी मंदिर में बालाजी महाराज को रोजाना धोती और साड़ी से सजाया जाता है. 

  • कहते हैं कि बालाजी महाराज की मूर्ती की पीठ पर कान लगाकर सुनने से समुद्र घोष सुनाई देता है और उनकी पीठ को चाहे जितनी बार भी क्यों न साफ कर लिया जाए वहां बार बार गीलापन आ जाता है.







Tirupati balaji story: सबसे अमीर हो कर भी गरीब है तिरुपति बालाजी


Tirupati balaji story in Hindi : अगर धन के आधार पर देखा जाए तो वर्तमान में सबसे धनवान भगवान बालाजी हैं। एक आंकड़े के अनुसार बालाजी मंद‌िर ट्रस्ट के खजाने में 50 हजार करोड़ से अध‌िक की संपत्त‌ि है। लेक‌िन इतने धनवान होने पर भी बालाजी सभी देवताओं से गरीब ही हैं
Tirupati Balaji, Hindi, Story, History, Kahnai, Katha, Itihas, Information, Jankari,
धनवान होकर भी गरीब हैं बालाजी
आप सोच रहे होंगे क‌ि इतना पैसा होने पर भी भगवान गरीब कैसे हो सकते हैं। और दूसरा सवाल यह भी आपके मन में उठ सकता है क‌ि जो सबकी मनोकामना पूरी करता है वह खुद कैसे गरीब हो सकता है।
लेक‌िन त‌िरुपत‌ि बालाजी के बारे में ऐसी प्राचीन कथा है ज‌िसके अनुसार बालाजी कल‌ियुग के अंत तक कर्ज में रहेंगे। बालाजी के ऊपर जो कर्ज है उसी कर्ज को चुकाने के ल‌िए यहां भक्त सोना और बहुमूल्य धातु एवं धन दान करते हैं।
शास्‍त्रों के अनुसार कर्ज में डूबे व्यक्त‌ि के पास क‌ितना भी धन हो वह गरीब ही होता है। इस न‌ियम के अनुसार यह माना जाता है क‌ि धनवान होकर भी गरीब हैं बालाजी।
Tirupati Balaji, Hindi, Story, History, Kahnai, Katha, Itihas, Information, Jankari,
आख‌िर कर्ज में क्यों डूबे हैं त‌िरुपत‌ि बालाजी
प्राचीन कथा के अनुसार एक बार महर्ष‌ि भृगु बैकुंठ पधारे और आते ही शेष शैय्या पर योगन‌िद्रा में लेटे भगवान व‌िष्‍णु की छाती पर एक लात मारी। भगवान व‌िष्‍णु ने तुरंत भृगु के चरण पकड़ ल‌िए और पूछने लगे क‌ि ऋष‌िवर पैर में चोट तो नहीं लगी।

भगवान व‌िष्‍णु का इतना कहना था क‌ि भृगु ऋष‌ि ने दोनों हाथ जोड़ ल‌िए और कहने लगे प्रभु आप ही सबसे सहनशील देवता हैं इसल‌िए यज्ञ भाग के प्रमुख अध‌िकारी आप ही हैं। लेक‌िन देवी लक्ष्मी को भृगु ऋष‌ि का यह व्यवहार पसंद नहीं आया और वह व‌िष्‍णु जी से नाराज हो गई। नाराजगी इस बात से थी क‌ि भगवान ने भृगु ऋष‌ि को दंड क्यों नहीं द‌िया।
नाराजगी में देवी लक्ष्मी बैकुंठ छोड़कर चली गई। भगवान व‌िष्‍णु ने देवी लक्ष्मी को ढूंढना शुरु क‌िया तो पता चला क‌ि देवी ने पृथ्‍वी पर पद्मावती नाम की कन्या के रुप में जन्म ल‌िया है। भगवान व‌िष्‍णु ने भी तब अपना रुप बदला और पहुंच गए पद्मावती के पास। भगवान ने पद्मावती के सामने व‌िवाह का प्रस्ताव रखा ज‌िसे देवी ने स्वीकार कर ल‌िया।










यमुनोत्री टेम्पल yamunotri temple in uttarakhand

यमुनोत्री टेम्पल
उत्तराखंड के उत्तरकाशी में उन्नीसवीं सदी का बना यह मंदिर कई बार प्राकृतिक आपदाओं के कारण नष्ट हो चुका है. गंगा के बाद यमुना को भी काफी पवित्रता कि दृष्टि से देखा जाता है.
जमीन से 3291 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है, जहां यमुना देवी कि पूजा की जाती है. मंदिर के दरवाजे अक्षय त्रित्या से लेकर दिवाली तक श्रद्धालुओं के लिए खुले रहते है







Yamunotriयमुनोत्री चार धामों मे से एक प्रमुख धाम है. यमुनोत्री हिमालय के पश्चिम में ऊँचाई पर स्थित है. यमुनोत्री को सूर्यपुत्री के नाम से भी जाना जाता है. और यमुनोत्री से कुछ किलोमीटर की दूरी पर कालिंदी पर्वत स्थित है. जो अधिक ऊँचाई पर होने के कारण दुर्गम स्थल भी है. यही वह स्थान है जहां से यमुना एक संकरी झील रूप में निकलती है. यह यमुना का उद्गम-स्थल माना जाता है. यहां पर यमुना अपने शुरूवाती रूप मे यानी के शैशव रूप में होती है यहां का जल शुद्ध एवं स्वच्छ तथा सफेद बर्फ की भांती शीतल होता है.

यमुनोत्री मंदिर | Yamunotri Temple

यमुनोत्री मंदिर का निर्माण टिहरी के राजा महाराजा प्रतापशाह ने बनवाया थान मंदिर में काला संगमरमर है. यमुनोत्री मंदिर के कपाट अक्षय तृतीया के पावन पर्व पर खोले जाते हैं व कार्तिक के महीने में यम द्वितीया के दिन बंद कर दिए जाते हैं, 

सर्दियों के समय यह कपाट बंद हो जाते हैं क्योंकी बर्फ बारी की वजह से यहां पर काम काज ठप हो जाता है. और यात्रा करना मना होता है शीतकाल के छ: महीनों के लिए खरसाली के पंडित मां यमुनोत्री को अपने गांव ले जाते हैं पूरे विधि विधान के साथ मां यमुनोत्री की पूजा अपने गांव में ही करते हैं. इस मंदिर में गंगा जी की भी मूर्ति सुशोभित है तथा गंगा एवं यमुनोत्री जी दोनो की ही पूजा का विधान है.

यमुनोत्री स्वरूप | Yamunotri Shape

यमुनोत्री मंदिर के प्रांगण में विशाल शिला स्तम्भ खडा़ है जो दिखने मे बहुत ही अदभुत सा प्रतित होता है. इसे दिव्यशिला के नाम से जाना जाता है. यमुनोत्री मंदिर बहुत उँचाई पर स्थित है इसके बावजूद भी यहां पर तीर्थयात्रियों एवं श्रद्धालुओं का अपार समूह देखा जा सकता है. मां यमुना की तीर्थस्थली गढवाल हिमालय के पश्चिमी भाग में यमुना नदी के स्त्रोत पर स्थित है.

यमुनोत्री का वास्तविक रूप में बर्फ की जमी हुई एक झील हिमनद है. यह समुद्र तल से 4421 मीटर की ऊँचाई पर कालिंद नामक पर्वत पर स्थित है. और इस स्थान से आगे जाना संभव नही है क्योकि यहां का मार्ग अत्यधिक दुर्गम है इसी वजह से देवी यमुनोत्री का मंदिर पहाड़ के तल पर स्थित है. संकरी एवं पतली सी धारा युमना जी का जल बहुत ही शीतल, परिशुद्ध एवं पवित्र  होता है और मां यमुना के इस रूप को देखकर भक्तों के हृदय में यमुनोत्री के प्रति अगाध श्रद्धा और भक्ति उमड पड़ती है.

यमुनोत्री पौराणिक संदर्भ | Yamunotri Mthological Reference

यमुनोत्री के बारे मे वेदों, उपनिषदों और विभिन्न पौराणिक आख्यानों में विस्तार से वर्णन किया गया है. देवी के महत्व और उनके प्रताप का उल्लेख प्राप्त होता है. पुराणों में यमुनोत्री के साथ असित ऋषि की कथा जुड़ी हुई है कहा जाता है की वृद्धावस्था के कारण ऋषि कुण्ड में स्नान करने के लिए नहीं जा सके तो उनकी श्रद्धा देखकर यमुना उनकी कुटिया मे ही प्रकट हो गई. इसी स्थान को यमुनोत्री कहा जाता है. कालिन्द पर्वत से निकलने के कारण इसे कालिन्दी भी कहते हैं.

यमनोत्री धाम कथा | Yamunotri Dham Katha in Hindi

एक अन्य कथा के अनुसार सूर्य की पत्नी छाया से यमुना व यमराज पैदा हुए यमुना नदी के रूप मे पृथ्वी मे बहने लगीं और यम को मृत्यु लोक मिला कहा जाता है की जो भी कोई मां यमुना के जल मे स्नान करता है वह आकाल म्रत्यु के भय से मुक्त होता है और मोक्ष को प्राप्त करता है. किदवंति है की यमुना ने अपने भाई से भाईदूज के अवसर पर वरदान मांगा कि इस दिन जो यमुना स्नान करे उसे यमलोक न जाना पड़े इस अत: इस दिन यमुना तट पर यम की पूजा करने का विधान भी है.

सप्तर्षि कुण्ड | Saptrishi Kund

यमुनोत्री में स्थित ग्लेशियर और गर्म पानी के कुण्ड सभी के आकर्षण का केन्द्र है. यमुनोत्री नदी के उद्गम स्थल के पास ही महत्वपूर्ण जल के स्रोत हैं सप्तर्षि कुंड एवं सप्त सरोवर यह प्राकृतिक रुप से जल से परिपूर्ण होते हैं. यमुनोत्री का प्रमुख आकर्षण वहां गर्म जल के कुंड होना भी है. यहां पर आने वाले तीर्थयात्रीयों एवं श्रद्धालूओं के लिए इन गर्म जल के कुण्डों में स्नान करना बहुत महत्व रखता है यहां हनुमान, परशुराम, काली और एकादश रुद्र आदि के मन्दिर है.

सूर्य कुंड | Surya Kund

मंदिर के निकट पहाड़ की चट्टान के भीतर गर्म पानी का कुंड है जिसे सूर्य कुंड के नाम से जाना जाता है. यह एक प्रमुख स्थल है यहां का जल इतना अधिक गरम होता है कि इसमें चावल से भरी पोटली डालने पर वह पक जाते हैं और यह उबले हुए चावल प्रसाद के रुप में तीर्थयत्रीयों में बांटे जाते हैं तथा इस प्रसाद को श्रद्धालुजन अपने साथ ले जाते हैं.

गौरी कुंड | Gauri Kund

गौरी कुंड भी महत्वपूर्ण स्थल है यहां का जल का जल अधिक गर्म नहीं होता अत: इसी जल में तीर्थयात्री स्नान करते हैं यह प्रकृति के एक अदभुत नजारे हैं. सभी यात्री स्नान के बाद सूर्य कुंड के पास स्थित दिव्य-शिला की पूजा-अर्चना करते हैं और उसके बाद यमुना नदी की पूजा की जाती है जिसका विशेष महत्व है. इसके नजदीक ही तप्तकुंड भी है परंपरा अनुसार इसमें स्नान के बाद श्रद्धालु यमुना में डुबकी लगाते हैं.

यमुनोत्री के धार्मिक महत्व के साथ ही मनमोहक प्राकृतिक सौंदर्य के कारण यह प्रकृति की अदभूत भेंट है. यमुनोत्री चढ़ाई  मार्ग वास्तविक रूप में दुर्गम और रोमांचित करनेवाला है. मार्ग में स्थित गगनचुंबी, बर्फीली चोटियां सभी यात्रियों को सम्मोहित कर देती हैं.

इसके आस-पास  देवदार और चीड़ के हरे-भरे घने जंगल ओर चारों तरफ फैला कोहरा एवं  घने जंगलो की हरियाली मन को मोहने वाली है. और पहाड़ों के बीच बहती हुई यमुना नदी की शीतल धारा मन को मोह लेती है यह वातावरण सुख व आध्यात्मिक अनुभूति देने वाला एवं नैसर्गिक सौंदर्य से परिपूर्ण है. भारतीय  संस्कृति में यमुनोत्री को माता का रूप माना गया है यह नदी भारतीय सभ्यता को महत्वपूर्ण आयाम देती है.































जगन्नाथ मंदिर जगन्नाथ मंदिर के 10 चमत्कार






जगन्नाथ मंदिर
बारवीं सदी में बना यह मंदिर उड़ीसा के पुरी में बना हुआ है जिस कारण इसे जगन्नाथ पुरी के नाम से भी जाना जाता है. यह मंदिर भगवान कृष्णा के साथ-साथ उनके भाई बलभद्र और उनकी बहन सुभद्रा को समर्पित है. इस मंदिर में गैर हिन्दुओं का प्रवेश वर्जित है.







जगन्नाथ मंदिर के 10 चमत्कार





माना जाता है कि भगवान विष्णु जब चारों धामों पर बसे अपने धामों की यात्रा पर जाते हैं तो हिमालय की ऊंची चोटियों पर बने अपने धाम बद्रीनाथ में स्नान करते हैं। पश्चिम में गुजरात के द्वारिका में वस्त्र पहनते हैं। पुरी में भोजन करते हैं और दक्षिण में रामेश्‍वरम में विश्राम करते हैं। द्वापर के बाद भगवान कृष्ण पुरी में निवास करने लगे और बन गए जग के नाथ अर्थात जगन्नाथ। पुरी का जगन्नाथ धाम चार धामों में से एक है। यहां भगवान जगन्नाथ बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के साथ विराजते हैं।

हिन्दुओं की प्राचीन और पवित्र 7 नगरियों में पुरी उड़ीसा राज्य के समुद्री तट पर बसा है। जगन्नाथ मंदिर विष्णु के 8वें अवतार श्रीकृष्ण को समर्पित है। भारत के पूर्व में बंगाल की खाड़ी के पूर्वी छोर पर बसी पवित्र नगरी पुरी उड़ीसा की राजधानी भुवनेश्वर से थोड़ी दूरी पर है। आज का उड़ीसा प्राचीनकाल में उत्कल प्रदेश के नाम से जाना जाता था। यहां देश की समृद्ध बंदरगाहें थीं, जहां जावा, सुमात्रा, इंडोनेशिया, थाईलैंड और अन्य कई देशों का इन्हीं बंदरगाह के रास्ते व्यापार होता था।>  
jagannath puri mandir
Ads by ZINC
पुराणों में इसे धरती का वैकुंठ कहा गया है। यह भगवान विष्णु के चार धामों में से एक है। इसे श्रीक्षेत्र, श्रीपुरुषोत्तम क्षेत्र, शाक क्षेत्र, नीलांचल, नीलगिरि और श्री जगन्नाथ पुरी भी कहते हैं। यहां लक्ष्मीपति विष्णु ने तरह-तरह की लीलाएं की थीं। ब्रह्म और स्कंद पुराण के अनुसार यहां भगवान विष्णु पुरुषोत्तम नीलमाधव के रूप में अवतरित हुए और सबर जनजाति के परम पूज्य देवता बन गए। सबर जनजाति के देवता होने के कारण यहां भगवान जगन्नाथ का रूप कबीलाई देवताओं की तरह है। पहले कबीले के लोग अपने देवताओं की मूर्तियों को काष्ठ से बनाते थे। जगन्नाथ मंदिर में सबर जनजाति के पुजारियों के अलावा ब्राह्मण पुजारी भी हैं। ज्येष्ठ पूर्णिमा से आषाढ़ पूर्णिमा तक सबर जाति के दैतापति जगन्नाथजी की सारी रीतियां करते हैं।
 
पुराण के अनुसार नीलगिरि में पुरुषोत्तम हरि की पूजा की जाती है। पुरुषोत्तम हरि को यहां भगवान राम का रूप माना गया है। सबसे प्राचीन मत्स्य पुराण में लिखा है कि पुरुषोत्तम क्षेत्र की देवी विमला है और यहां उनकी पूजा होती है। रामायण के उत्तराखंड के अनुसार भगवान राम ने रावण के भाई विभीषण को अपने इक्ष्वाकु वंश के कुल देवता भगवान जगन्नाथ की आराधना करने को कहा। आज भी पुरी के श्री मंदिर में विभीषण वंदापना की परंपरा कायम है।
 
स्कंद पुराण में पुरी धाम का भौगोलिक वर्णन मिलता है। स्कंद पुराण के अनुसार पुरी एक दक्षिणवर्ती शंख की तरह है और यह 5 कोस यानी 16 किलोमीटर क्षेत्र में फैला है। माना जाता है कि इसका लगभग 2 कोस क्षेत्र बंगाल की खाड़ी में डूब चुका है। इसका उदर है समुद्र की सुनहरी रेत जिसे महोदधी का पवित्र जल धोता रहता है। सिर वाला क्षेत्र पश्चिम दिशा में है जिसकी रक्षा महादेव करते हैं। शंख के दूसरे घेरे में शिव का दूसरा रूप ब्रह्म कपाल मोचन विराजमान है। माना जाता है कि भगवान ब्रह्मा का एक सिर महादेव की हथेली से चिपक गया था और वह यहीं आकर गिरा था, तभी से यहां पर महादेव की ब्रह्म रूप में पूजा करते हैं। शंख के तीसरे वृत्त में मां विमला और नाभि स्थल में भगवान जगन्नाथ रथ सिंहासन पर विराजमान है।

मंदिर का इतिहास : इस मंदिर का सबसे पहला प्रमाण महाभारत के वनपर्व में मिलता है। कहा जाता है कि सबसे पहले सबर आदिवासी विश्‍ववसु ने नीलमाधव के रूप में इनकी पूजा की थी। आज भी पुरी के मंदिरों में कई सेवक हैं जिन्हें दैतापति के नाम से जाना जाता है।
राजा इंद्रदयुम्न ने बनवाया था यहां मंदिर : राजा इंद्रदयुम्न मालवा का राजा था जिनके पिता का नाम भारत और माता सुमति था। राजा इंद्रदयुम्न को सपने में हुए थे जगन्नाथ के दर्शन। कई ग्रंथों में राजा इंद्रदयुम्न और उनके यज्ञ के बारे में विस्तार से लिखा है। उन्होंने यहां कई विशाल यज्ञ किए और एक सरोवर बनवाया। एक रात भगवान विष्णु ने उनको सपने में दर्शन दिए और कहा नीलांचल पर्वत की एक गुफा में मेरी एक मूर्ति है उसे नीलमाधव कहते हैं। ‍तुम एक मंदिर बनवाकर उसमें मेरी यह मूर्ति स्थापित कर दो। राजा ने अपने सेवकों को नीलांचल पर्वत की खोज में भेजा। उसमें से एक था ब्राह्मण विद्यापति। विद्यापति ने सुन रखा था कि सबर कबीले के लोग नीलमाधव की पूजा करते हैं और उन्होंने अपने देवता की इस मूर्ति को नीलांचल पर्वत की गुफा में छुपा रखा है। वह यह भी जानता था कि सबर कबीले का मुखिया विश्‍ववसु नीलमाधव का उपासक है और उसी ने मूर्ति को गुफा में छुपा रखा है। चतुर विद्यापति ने मुखिया की बेटी से विवाह कर लिया। आखिर में वह अपनी पत्नी के जरिए नीलमाधव की गुफा तक पहुंचने में सफल हो गया। उसने मूर्ति चुरा ली और राजा को लाकर दे दी। विश्‍ववसु अपने आराध्य देव की मूर्ति चोरी होने से बहुत दुखी हुआ। अपने भक्त के दुख से भगवान भी दुखी हो गए। भगवान गुफा में लौट गए, लेकिन साथ ही राज इंद्रदयुम्न से वादा किया कि वो एक दिन उनके पास जरूर लौटेंगे बशर्ते कि वो एक दिन उनके लिए विशाल मंदिर बनवा दे। राजा ने मंदिर बनवा दिया और भगवान विष्णु से मंदिर में विराजमान होने के लिए कहा। भगवान ने कहा कि तुम मेरी मूर्ति बनाने के लिए समुद्र में तैर रहा पेड़ का बड़ा टुकड़ा उठाकर लाओ, जो द्वारिका से समुद्र में तैरकर पुरी आ रहा है। राजा के सेवकों ने उस पेड़ के टुकड़े को तो ढूंढ लिया लेकिन सब लोग मिलकर भी उस पेड़ को नहीं उठा पाए। तब राजा को समझ आ गया कि नीलमाधव के अनन्य भक्त सबर कबीले के मुखिया विश्‍ववसु की ही सहायता लेना पड़ेगी। सब उस वक्त हैरान रह गए, जब विश्ववसु भारी-भरकम लकड़ी को उठाकर मंदिर तक ले आए।
 
अब बारी थी लकड़ी से भगवान की मूर्ति गढ़ने की। राजा के कारीगरों ने लाख कोशिश कर ली लेकिन कोई भी लकड़ी में एक छैनी तक भी नहीं लगा सका। तब तीनों लोक के कुशल कारीगर भगवान विश्‍वकर्मा एक बूढ़े व्यक्ति का रूप धरकर आए। उन्होंने राजा को कहा कि वे नीलमाधव की मूर्ति बना सकते हैं, लेकिन साथ ही उन्होंने अपनी शर्त भी रखी कि वे 21 दिन में मूर्ति बनाएंगे और अकेले में बनाएंगे। कोई उनको बनाते हुए नहीं देख सकता। उनकी शर्त मान ली गई। लोगों को आरी, छैनी, हथौड़ी की आवाजें आती रहीं। राजा इंद्रदयुम्न की रानी गुंडिचा अपने को रोक नहीं पाई। वह दरवाजे के पास गई तो उसे कोई आवाज सुनाई नहीं दी। वह घबरा गई। उसे लगा बूढ़ा कारीगर मर गया है। उसने राजा को इसकी सूचना दी। अंदर से कोई आवाज सुनाई नहीं दे रही थी तो राजा को भी ऐसा ही लगा। सभी शर्तों और चेतावनियों को दरकिनार करते हुए राजा ने कमरे का दरवाजा खोलने का आदेश दिया।
 
जैसे ही कमरा खोला गया तो बूढ़ा व्यक्ति गायब था और उसमें 3 अधूरी ‍मूर्तियां मिली पड़ी मिलीं। भगवान नीलमाधव और उनके भाई के छोटे-छोटे हाथ बने थे, लेकिन उनकी टांगें नहीं, जबकि सुभद्रा के हाथ-पांव बनाए ही नहीं गए थे। राजा ने इसे भगवान की इच्छा मानकर इन्हीं अधूरी मूर्तियों को स्थापित कर दिया। तब से लेकर आज तक तीनों भाई बहन इसी रूप में विद्यमान हैं।
 
वर्तमान में जो मंदिर है वह 7वीं सदी में बनवाया था। हालांकि इस मंदिर का निर्माण ईसा पूर्व 2 में भी हुआ था। यहां स्थित मंदिर 3 बार टूट चुका है। 1174 ईस्वी में ओडिसा शासक अनंग भीमदेव ने इसका जीर्णोद्धार करवाया था। मुख्‍य मंदिर के आसपास लगभग 30 छोटे-बड़े मंदिर स्थापित हैं।








हवा के विपरीत लहराता ध्वज : श्री जगन्नाथ मंदिर के ऊपर स्थापित लाल ध्वज सदैव हवा के विपरीत दिशा में लहराता है। ऐसा किस कारण होता है यह तो वैज्ञानिक ही बता सकते हैं लेकिन यह निश्‍चित ही आश्चर्यजनक बात है। 
 
यह भी आश्‍चर्य है कि प्रतिदिन सायंकाल मंदिर के ऊपर स्थापित ध्वज को मानव द्वारा उल्टा चढ़कर बदला जाता है। ध्वज भी इतना भव्य है कि जब यह लहराता है तो इसे सब देखते ही रह जाते हैं। ध्वज पर शिव का चंद्र बना हुआ है।


गुंबद की छाया नहीं बनती : यह दुनिया का सबसे भव्य और ऊंचा मंदिर है। यह मंदिर 4 लाख वर्गफुट में क्षेत्र में फैला है और इसकी ऊंचाई लगभग 214 फुट है। मंदिर के पास खड़े रहकर इसका गुंबद देख पाना असंभव है। मुख्य गुंबद की छाया दिन के किसी भी समय अदृश्य ही रहती है।
हमारे पूर्वज कितने बड़े इंजीनियर रहे होंगे यह इस एक मंदिर के उदाहरण से समझा जा सकता है। पुरी के मंदिर का यह भव्य रूप 7वीं सदी में निर्मित किया गया।









चमत्कारिक सुदर्शन चक्र : पुरी में किसी भी स्थान से आप मंदिर के शीर्ष पर लगे सुदर्शन चक्र को देखेंगे तो वह आपको सदैव अपने सामने ही लगा दिखेगा। इसे नीलचक्र भी कहते हैं। यह अष्टधातु से निर्मित है और अति पावन और पवित्र माना जाता है।





हवा की दिशा : सामान्य दिनों के समय हवा समुद्र से जमीन की तरफ आती है और शाम के दौरान इसके विपरीत, लेकिन पुरी में इसका उल्टा होता है। 
अधिकतर समुद्री तटों पर आमतौर पर हवा समुद्र से जमीन की ओर आती है, लेकिन यहां हवा जमीन से समुद्र की ओर जाती है।




हवा की दिशा : सामान्य दिनों के समय हवा समुद्र से जमीन की तरफ आती है और शाम के दौरान इसके विपरीत, लेकिन पुरी में इसका उल्टा होता है। 
अधिकतर समुद्री तटों पर आमतौर पर हवा समुद्र से जमीन की ओर आती है, लेकिन यहां हवा जमीन से समुद्र की ओर जाती है।



गोल्डन टेम्पल, अमृतसर GOLDEN TEMPLE

गोल्डन टेम्पल, अमृतसर
गोल्डन टेम्पल को हरमंदिर साहिब के नाम से भी जाना जाता है. यह सिखों के पवित्र स्थानों में से एक है. इस गुरुद्वारे के चार दरवाजे है जो कि यह दर्शाते है कि इस मंदिर के दरवाजे सभी के लिए खुले हुए हैं, चाहे वह किसी धर्म को मानने वाला हो, किसी भी सम्प्रदाय का हो. यह मंदिर यूनिवर्सल भाईचारे का अद्भुत नमूना है. गुरु ग्रन्थ साहिब को सबसे पहले इसी मंदिर में रखा गया था.


स्वर्ण मंदिर सिखों का सबसे पवित्र स्थल माना जाता है। जिस तरह हिंदुओं के लिए अमरनाथ जी और मुस्लिमों के लिए काबा पवित्र है उसी तरह सिखों के लिए स्वर्ण मंदिर महत्त्व रखता है। सिक्खों के लिए स्वर्ण मंदिर बहुत ही महत्वपूर्ण है। इसे "अथ सत तीरथ" के नाम से भी जाना जाता है। सिखों के पांचवें गुरु अर्जुनदेव जी ने स्वर्ण मंदिर (श्री हरिमंदिर साहिब) का निर्माण कार्य पंजाब के अमृतसर में शुरू कराया था। 
स्वर्ण मंदिर का इतिहास (History of Golden Temple) 
कहा जाता है कि हरिमंदिर साहिब का सपना तीसरे सिख गुरु अमर दास जी का था। लेकिन इसका मुख्य कार्य पांचवें सिख गुरु अर्जुनदेव जी ने शुरू कराया था। स्वर्ण मंदिर को धार्मिक एकता का भी स्वरूप माना जाता है। एक सिख तीर्थ होने के बावजूद हरिमंदिर साहिब जी यानि स्वर्ण मंदिर की नींव सूफी संत मियां मीर जी द्वारा रखी गई है। 
अमृतसर सरोवर की रचना (Sarovar at Golden Temple) 
स्वर्ण मंदिर के चारों तरफ एक सरोवर है जिसे अमृतसर सरोवर या अमृत सरोवर कहते हैं। इस सरोवर का निर्माण कार्य अर्जुनदेव जी ने पूरा कराया था। इस स्थान को बेहद महत्त्वपूर्ण और ऐतिहासिक माना जाता है।
स्वर्ण मंदिर के विशेष तथ्य (Important Facts of Golden Temple) 
• स्वर्ण मंदिर को सिखों का तीर्थ माना जाता है। 
• पहली संपूर्ण गुरु ग्रंथ साहिब स्वर्ण मंदिर में ही स्थापित की गई है। 
• बाबा बुड्ढा जी स्वर्ण मंदिर के पहले पूजारी थे। 
• स्वर्ण मंदिर में प्रवेश करने के चार द्वारा हैं। 
• स्वर्ण मंदिर में दुनिया का सबसे बड़ा किचन है जहां प्रतिदिन करीब 1 लाख लोगों के लिए निशुल्क भोजन कराया जाता है। यह भोजन लंगर (एक सामूहिक भोज) के रूप में लोगों तक पहुंचता है। 
• बैसाखी, लोहड़ी, प्रकाशोत्सव, शहीदी दिवस, संक्रांति जैसे त्यौहारों पर स्वर्ण मंदिर में भव्य कार्यक्रम होते हैं। विशेषकर खालसा पंथ की स्थापना दिवस यानि बैसाखी के दिन स्वर्ण मंदिर की अनुपम रूप देखने को मिलता है।
स्वर्ण मंदिर के नियम (Rules of Golden Temple) 
यूं तो स्वर्ण मंदिर में किसी भी जाति, धर्म के लोग जा सकते हैं लेकिन स्वर्ण मंदिर में प्रवेश करते समय कुछ बुनियादी नियमों का अवश्य पालन करना होता है जो निम्न हैं: 
• मंदिर परिसर में जाने से पहले जूते बाहर निकालने होते हैं। 
• मंदिर के अंदर धूम्रपान, मदिरा पान आदि पूर्णत: निषेध हैं। 
• मंदिर के अंदर जाते समय सर ढंका होना चाहिए। मंदिर परिसर द्वारा सर ढंकने के लिए विशेष रूप से कपड़े या स्कार्फ प्रदान किए जाते हैं। सर ढकना आदर प्रकट करने का एक तरीका है। 
• गुरुवाणी सुनने के लिए आपको दरबार साहिब के अंदर जमीन पर ही बैठना चाहिए।


स्वर्ण मंदिर का इतिहास और रोचक बाते – Golden Temple History In Hindi

श्री हरमंदिर साहिब (देवस्थान) जिसे श्री दरबार साहिब और विशेष रूप से स्वर्ण मंदिर के नाम से जाना जाता है, यह सिख धर्म के लोगो का धार्मिक गुरुद्वारा है जिसे भारत के पंजाब में अमृतसर शहर में स्थापित किया गया है. स्वर्ण मंदिर अमृतसर की स्थापना 1574 में चौथे सिख गुरु रामदासजी ने की थी.
पाँचवे सिख गुरु अर्जुन ने हरमंदिर साहिब को डिज़ाइन किया और धार्मिक मान्यताओ के अनुसार हरमंदिर साहिब के अंदर सिख धर्म का प्राचीन इतिहास भी बताया गया है. हरमंदिर साहिब कॉम्पलेक्स अकाल तख़्त पर
हरमंदिर साहिब में बने चार मुख्य द्वार सिखो की दूसरे धर्मो के प्रति सोच को दर्शाते है, उन चार दरवाजो का मतलब कोई भी, किसी भी धर्म का इंसान उस मंदिर में आ सकता है. वर्तमान में तक़रीबन 125000 से भी जादा लोग रोज़ स्वर्ण मंदिर में भक्ति-आराधना करने के उद्देश्य से आते है और सिख गुरुद्वारे के मुख्य प्रसाद ‘लंगर’ को ग्रहण करते है.
आज के गुरुद्वारे को 1764 में जस्सा सिंह अहलूवालिया ने दूसरे कुछ और सिक्खो के साथ मिलकर पुनर्निर्मित किया था. 19 वी शताब्दी के शुरू में ही महाराजा रणजीत सिंह ने पंजाब को बाहरी आक्रमणों से बचाया और साथ ही गुरूद्वारे के ऊपरी भाग को सोने से ढक दिया, और तभी से इस मंदिर की प्रसिद्धि को चार-चाँद लग गए थे.
अमृतसर स्वर्ण मंदिर का इतिहास – Golden Temple History Amritsar
हरमंदिर साहिब और कुछ नही बल्कि भगवान का ही एक मंदिर है. गुरु अमर दास ने गुरु राम दास को एक अमृत टाँकी बनाने का आदेश दिया, ताकि सिख धर्म के लोग भी भगवान की आराधना कर सके. तभी गुरु राम दास ने सभी सिखो को अपने इस काम में शामिल कर लिया था. उनका कहना था की यह अमृत टाँकी ही भगवान का घर है. यह काम करते समय गुरु पहले जिस झोपडी में रहते थे उसे आज गुरु महल के नाम से भी जाना जाता है.
1578 CE में गुरु राम दास ने एक और टाँकी की खुदाई की, जिसे बाद में अमृतसर के नाम से जाना जाने लगा, और बाद में इसी टाँकी के नाम पर ही शहर का नाम भी अमृतसर रखा गया था. और हरमंदिर साहिब (स्वर्ण मंदिर) भी अमृतसर के बीचो-बीच बनाया गया था और इसी वजह से सभी सिख स्वर्ण मंदिर को ही अपना मुख्य देवस्थान मानते है.
केवल सिख धर्म गुरु ही नही बल्कि दूसरे धर्मगुरु भी सिखो के इस धर्मस्थान को मानते आये है जैसे की, बाबा फरीद और कबीर इसके साथ ही सिक्खो के पाँचवे गुरु, गुरु अर्जुन ने आदि ग्रन्थ की भी रचना वही रहते हुए की थी.
स्वर्ण मंदिर के उत्सव –
सिखो का मुख्य उत्सव जिसे वहाँ मनाया जाता है वह है- बैसाखी जो अप्रैल माह के दूसरे सप्ताह में मनाया जाता है. इसी दिन सिख लोग खालसा की स्थापना का उत्सव भी मनाते है. सिखो के दूसरे महत्वपूर्ण दिनों में गुरु राम दास का जन्मदिन, गुरु तेग बहादुर का मृत्युदिन, सिख संस्थापक गुरु नानक देव का जन्मदिन इत्यादि शामिल है. इस दिन सिख लोग ईश्वर भक्ति करते है.
साधारणतः दीवाली के दिन दियो और कंदिलो की रौशनी में स्वर्ण मंदिर की सुंदरता देखने लायक होती है. इस दिन स्वर्ण मंदिर को दियो और लाइट से सजाया जाता है और फटाखे भी फोड़े जाते है. हर सिख अपनी ज़िन्दगी में एक बार जरूर स्वर्ण मंदिर जाता है और ज्यादातर सिख अपने ज़िन्दगी के विशेष दिनों जैसे जन्मदिन, शादी, त्यौहार इत्यादि समय स्वर्ण मंदिर जाते है.
स्वर्ण मंदिर की कुछ रोचक बाते – Interesting Facts About Golden Temple in Hindi
अपनी धार्मिक महत्वता होने के बावजूद स्वर्ण मंदिर के बारे में 10 और ऐसी बाते है जिन्हें जानना आपके लिये बहोत जरुरी है –
1. श्री हरमंदिर साहिब के नाम का अर्थ “भगवान का मंदिर” है और इस मंदिर में सभी जाती-धर्म के लोग बिना किसी भेदभाव के आते है और भगवान की भक्ति करते है.
2. इस मंदिर के बारे में एक और रोचक बात यह है की आप चारो दिशाओ से इस मंदिर में प्रवेश कर सकते हो क्योकि चारो दिशाओ में इस मंदिर के प्रवेश द्वार बने हुए है. और यह लोगों की एकता को दर्शाता है.
3. अमृत सरोवर के बिच में ही स्वर्ण मंदिर को बनाया गया है, अमृत सरोवर को सबसे पवित्र सरोवर भी माना जाता है.
4. गुरूद्वारे में सिख धर्म की प्राचीन ऐतिहासिक वस्तुओ का प्रदर्शन भी किया गया है, जिसे देश-विदेश से आये करोडो श्रद्धालु देखते है.
5. संरचनात्मक रूप से यह मंदिर जमीन की सतह से ज्यादा ऊपर नही बना है और यह हिन्दू मंदिरो के बिल्कुल विरुद्ध है, क्योकि हिन्दुओ के बहोत से मंदिर जमीन से थोड़े ऊँचे बने हुए होते है.
6. इस मंदिर को बार-बार कई बार उजाड़ा गया था, पहले मुघल और अफगानों ने और फिर भारतीय आर्मी और आतंकवादियो के मनमुटाव में. और इसी वजह से इसे सिख धर्म की विजय का प्रतिक भी माना जाता है.
7. स्वर्ण मंदिर का मुख्य हॉल गुरु ग्रन्थ साहिब का घर था.
8. कहा जाता है की स्वर्ण मंदिर आज एक वैश्विक धरोहर है, जहा देश ही नही बल्कि विदेशो से भी लोग आते है और इसकी लंगर सेवा भी दुनिया की सबसे बड़ी सेवा है, यहाँ 40000 से जादा लोग रोज़ सेवा करते है.
9. और इस मंदिर की सबसे रोचक और जानने योग्य बात यह है की यह मंदिर सफ़ेद मार्बल से बना हुआ है और जिसे असली सोने से ढका गया है और इसी वजह से इसे स्वर्ण मंदिर भी कहा जाता है.















दिव्य दर्शन

ब्रज चैरासी कोसीय परिक्रमा मार्ग पर विभिन्न पड़ाव स्थलों पर 30 जनसुविधा केन्द्रों का निर्माण

  प्रस्तावना ब्रज क्षेत्र भगवान श्रीकृष्ण की जन्म व क्रीड़ा स्थली होने के कारण पर्यटन की दृष्टि से विश्व विख्यात है। यहाँ ...